Sunday, August 1, 2010

कभी सोचता था कि ज़िन्दगी जीत लूँगा मैं...

कभी सोचता था कि ज़िन्दगी जीत लूँगा मैं,
यह जहाँ जीत बाँध लूँगा में,
हवा में उड़ सकूँगा मैं
पर उड़ने कि तो बात छोडें,
यहाँ तो चलना ना सीख पाया मैं,
यहाँ तो छलना ना सीख पाया मैं,
यहाँ अपने और पराये को न समझ पाया मैं ।

औरो के गम में दुखी हो जाए वोह मैं हूँ,
औरो की खुशी में मचल जाए वोह मैं हूँ,
पर दोस्त यह दुनिया दिल से नहीं दिमाग से चलती है,
यह दुनिया जस्बात से नहीं, चालाकी से चलती है ।

लगता था मैं दुनिया के रंग में ढल गया हूँ,
लालच और इर्ष्या से भर गया हूँ,
इस दुनिया को मैं परख गया हूँ,
पर सोच के बैठूं तो, मैं वहीं का वहीं हूँ ,
मानो दुनिया गोल घूम कर वापिस आ गई है,
पर मैं अभी वहीं का वहीं हूँ,
लाखों करोड़ों की भीड़ में अकेला कहीं हूँ,
अकेला कहीं हूँ ।

अकेला कहीं हूँ, करोड़ों में,
जैसे कोई तारा हो ब्रह्माण्ड में,
पर टीम तिमता रहता है कहीं,
पर टीम तिमाता रहता है कहीं,
आशा की किरण पहुँच जाती है कहीं ना कहीं,
आशा की किरण पहुँच जाती है कहीं ना कहीं ,
चाहे देखने वाला समझे ना समझे उसे,
नई सी होती है हर रौशनी,
उसी तरह से मैं नया हूँ,
मेरा हर ख्याल नया है,
मानो या न मानो इसे तुम,
मैं वहीं का वहीं हूँ,
मैं वहीं का वहीं हूँ,
दुनिया घूम कर आ गई है,
दुनिया गोल घूम कर वापिस आ गई है ॥
-- आदित्य दातार

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